बिहार प्रान्त के राजगृह नगर में राजा श्रेणिक राज्य करते थे । उनके कई पुत्रों में से एक पुत्र का नाम वारिषेण था । वे छोटी ही उमर में मुनि हो गये थे । वे मुनिराज जहां - तहां विचरते और लोगों को उपदेश देते हुये पलाशकूट नगर में पहंुचे । वहां राजा श्रेणिक के मंत्री का पुत्र पुष्पडाल रहता था । वह सच्चा सम्यग्दृष्टि और दान पूजा में तत्पर था ।
जब वारिषेण मुनि उसके दरवाजे से आहार को निकले तो पुष्पडाल ने उन्हें पड़गाहा और भक्तिसहित आहार दिया । जब मुनिराज आहार ले चुके और वन को चले, तब पुष्पडाल ने सोचा कि जब ये गृहस्थी में थे तब मेरे बड़े मित्र थे । इससे पुरानी मित्रता भेंटने के लिये इन्हें कुछ दूर पहुंचा आना चाहिये । पुष्पडाल के घर में एक कानी स्त्री थी उससे आज्ञा लेकर वह मुनिराज के पीछे-पीछे चला ।
पुष्पडाल यह सोचता
था कि जब मुनिराज कहेंगे कि जाओ घर लौट जाओ, तब लौटूंगा परन्तु उन
वीतराग मंनि को इस दुनियांदारी से क्या लेना था । चाहें कोई आगे आवे,
चाहे पीछे जावे, चाहें साथ रहे, उन्हें कुछ मतलब नहीं था ।
जब बहुत दूर निकल
गये तब बहुत दूर आ गये हैं यह जताने के लिये पुष्पडाल ने महाराज से
कहा कि यह वही वावड़ी है, यह वही बगीचा है, जहां हम आप बड़े मौज से
खेला करते थे । यद्यपि मुनिराज इसके मन का सब हाल जानते थे, फिर भी
उन्होनें कुछ उत्तर नहीं दिया । तब तो पुष्पडाल मुनिश्री के आगे खड़ा
हो गया और नमस्कार किया । मुनिराज ने उसे धर्मवृद्धि देकर धर्म का
स्वरूप सुनाया ।
ज्ञान व वैराग्य
का उपदेश सुनकर पुष्पडाल का चित्त संसार से उदास हो गया और उसने उन्ही
वारिषेण मुनि के पास दीक्षा ली । बहुत दिनों तक शास्त्रों का अभ्यास
करता रहा और अच्छी तरह से संयम पालता रहा परन्तु उसका चित्त उस कानी
स्त्री में ही वसा करता था । उसे हमेशा उस एकाक्षी की याद आती थी ।
एक दिन वे दोनों
गुरु चेला महावीर स्वामी के समवशरण में गये और भगवान को नमस्कार करके
बैठ गये । वहां गन्धर्व ने एक श्लोक पढ़ा । उसका अर्थ यह था कि हे
भगवन् आपने पृथ्वीरूप स्त्री को तीस वर्ष तक अच्छी तरह भोग कर छोड़
दिया है । इसलिये वह बेचारी, आपके विछोह से दुखी होकर नदीरूप आंसुओं
से आपके नाम को रो रही है ।
यह सुनकर पुष्पडाल
को अपनी स्त्री की और गहरी स्मृति हो आई । वह मन में सोचने लगा कि
ठीक है मैनें अपनी स्त्री को एकदम छोड़ कर दीक्षा ले ली है । आज बारह
वर्ष हो गये हैं बेचारी का मुँह तक नहीं देखा । वह मेरे विछोह से मेरे
नाम को रोती होगी, इसलिये घर जाकर उसका समाधानकरूँगा और कुछ दिन उसे
गृहस्थी का सुख देकर पीछे दीक्षा ले लूँगा । यह सोच कर पुष्पडाल घर
की ओर चलने लगा तब अन्तर्यामी मुनि वारिषेण ने उसे जाने नहीं दिया
। वे उसके मन की बात जान गये और उसे धर्म में स्थिर करना उचित समझा
। इसलिये वे उसे अपने साथ अपने घर ले गये ।
जब वे घर पहुंचे
तब वारिषेण की माता रानी चेलना सन्देह करने लगी कि मेरा सुपुत्र वारिषेण
मुनिव्रत न साध सकने के कारण लौट आया है । इसकी परीक्षा करने के लिये
उनके बैठने को एक काठ की और एक सोने की चैकी रख दी । वारिषेण तो काठ
की चैकी पर बैठे, परन्तु पुष्पडाल सुवर्ण की चैकी पर बैठ गया । तब
रानी चेालना ने समझ लिया कि वारिषेण ही सच्चे मुनि हैं और उनके साथी
की क्रिया उल्टी दिखती है ।
वारिषेण ने माता
से कहा कि हे माता । मेरी बत्तीसों स्त्रियों को गहने और कपड़े आदि
से सजाकर मेरे पास लाओ । यह वाक्य सुनकर यद्यपि रानी को फिर से संदेह
हुआ, परन्तु वारिषेण के कहे अनुसार उन बत्तीसों स्त्रियों को वह ले
आईं और वे सबकी सब मुनि को नमस्कार करके खड़ी हो गयीं । तब वारिषेण
ने पुष्पडाल से कहा - हे मुने जिस धन के लिये तुम मुनिपद छोड़कर जाना
चाहते हो, उससे कई गुणा राज्य तुम ले लो और आपका चित्त एक कानी स्त्री
में भटकता है सो ये बहुत रूपवती बत्तीस स्त्रियां ग्रहण करो । दस बीस
बरस भोग कर देख लो इनमें सुख है, या मुनि मार्ग में सुख है ।
मुनिराज के ये
वचन सुन कर पुष्पडाल बहुत लज्जित हुआ और कहने लगा- हे गुरो आप धन्य
हो कि आपने ऐसी उत्तम सामग्री छोड़कर जिनदीक्षा ली है जिसके आगे मेरी
कानी स्त्री कुछ गिनती में नहीं है । आपके इस कार्य से मेरा मोह मिट
गया, अब मुझे सच्चा वैराग्य उपजा है । मेरी मूर्खता पर क्षमा करो और
प्रायश्चित देकर सच्चे मार्ग में लगाओ । यह सुनकर वारिषेण मुनि बहुत
प्रसन्न हुए और शास्त्र में कहे अनुसार उन्हें दण्ड देकर फिर से दीक्षा
दी । अंत में उन दोनों ने ध्यान के बल से आठों कर्म नष्ट कर सिद्ध
पद पाया ।
सारांश
- हम सबको उचित है कि यदि किसी मनुष्य को धर्मभ्रष्ट होता
देखें अर्थात् अपने जैनी भाई को ईसाई, मुसलमान आदि होता देखें तो जैसे
बने तैसे उसे जैनधर्म में दृढ़ कर दें अथवा किसी धर्मात्मा के पास
पूंजी, रोजगार आदि नहीं हो तो शक्ति भर सहायता करें ताकि धन के लालच
में वह अन्य धर्म की ओर आकृष्ट न हो और पथभ्रष्ट होकर अन्य कुमार्गों
पर जाने से रोकें ।
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