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प्रज्ञाश्रमण श्री 108 श्री अमित सागर महाराज की पूजा

      स्थापना      

श्री गुरु के चरणों में, मैं झुका रहा अपना माथा ।
जिनके जीवन की हरचर्याए बन पड़ी स्वयं ही नव गाथा ।।
यह जैनागम का सुधा कलश जो बिखराते हैं गली गली ।
जिनके दर्शन को पाकर के खिलती मुर्झाई हृदय कली ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने अत्र अवतर 2 तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने अत्र मम सन्निहितो भव-भव बषट् ।
इन अष्ट द्रव्य में प्रथम द्रव्य जो जल है ।
जो है स्वच्छता का प्रतीक विमल है ।।
हम अर्पित करते इसी भाव को लेकर ।
मेरा मन भी बन जाये कि जैसा जल है ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने जन्म जरा मृत्यु जलं निर्व0 स्वाहा ।
है द्रव्य दूसरा जिसका नाम कि चन्दन ।
शीतलता का है प्रतीक नन्दन वन ।।
अर्पित करते हम इसी भाव को लेकर ।
छूटे मम भव रोग शोक का क्रन्दन ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने चन्दन निर्व0 स्वाहा ।
जो द्रव्य तीसरा कहा जिनागम अक्षत ।
है अखण्ड शुभ धवल रूप् में ये सत् ।।
यह पुंज चढ़ाता इसी भाव में खोकर ।
पा जाऊॅं हे नाथ अमर अक्षय पद ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने अक्षतं निर्व0 स्वाहा ।
जो द्रव्य है चैथा पुष्प् प्रतीक सुगंधित ।
है विरोध करता विकार जो मन्मथ ।।
मैं पुष्प् चढ़ाऊॅं यही भावना लेकर ।
हो काम नाश मम मन का जो है दुष्कर ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने पुष्पं निर्व0 स्वाहा ।
है द्रव्य पाॅंवां चरू बलि नैवेद्यनामी ।
जो लड्डू घेवर, बरफी पेड़ा फेनी ।।
यह अर्पित करते इसी भाव को लेकर ।
हो क्षुधा रोग मम नाश मिले शिवरामी ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने नैवेद्य निर्व0 स्वाहा ।
है छटा द्रव्य जो दीप रूप् कहलाता है ।
बैठा हो चिरकाल का जो तम काला ।।
जो जले दीप से तत्क्षण में नश जाता ।
हो मोह तमस् का नाश यही मन भाता ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने दीपं निर्व0 स्वाहा ।
है द्रव्य सातवीं धूप सुगन्धी वाली ।
जो जरे अग्नि के संग धूम उपजाती ।।
यह धूप खेय मम भाव यही है आला ।
जल जाये सारे कर्म काष्ट का भारा ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने धूपं स्वाहा ।
है द्रव्य आठवां मंगलमय ये फल है ।
केला अंगूर अनार आम के संग है ।।
अर्पण करते यह इसी भाव से हम भी ।
मिल जाये हमको मोक्ष नसैनी जल्दी ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने फलं निर्व0 स्वाहा ।
जल चन्दन अक्षत पुष्प् सुगंधित लेकर ।
नैवेद्य दीप सगं धूप दशांगी खेकर ।।
ले के फल उत्तम अध्र्य बना थाली भर ।
अर्पण करता मिले अनध्र्य पद सुखकर ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने अध्र्य निर्व0 स्वाहा ।
यू भक्ति से, गुणगाय, गुरु पद की पूजा करूॅं ।
मिले मोक्ष पदराज, पुष्पांजलि अर्पण करूॅं ।।

        पुष्पांजलि
जयमाला: दोहा
ज्ञान ध्यान धारी गुरू मैं वन्दू त्रिकाल ।
गुणमाला वर्णन करूं, हरो मोह सन्ताप ।।
जै जै अमित सागर गुरू देव हमारे ।
जै तीन लोक में श्रेष्ठ गुरू हमारे ।।
जै ध्यान मुद्राधारी की मैं वन्दना करूं।
जै जै गुरू चरण की मैं अर्चना करूं ।।
जै जै गुलाबचन्द के ही नन्द कहाये ।
जै जैन सुमित्रा माता के ही लाल कहाये ।।
जै नयनों के सितारों की मैं वन्दना करूं ।
जै जै गुरू चरण की मैं अर्चना करूं ।।
जै दीक्षा गुरू धर्म सागर हैं आपके ।
जै शिक्षा गुरू श्रुत सागर हैं आपके ।।
जै प्रज्ञा श्रमण बालयोगी की वन्दना करूं ।
जै जै गुरू चरण की मैं अर्चना करूं ।।
जै मूल उत्तर गुणों के धारी हो आप ।
जै बाईस परीषहों के विजेता हो आप ।।
जै मोक्ष महल राही की मैं वंदना करू ।
जै जै गुरू चरण की मैं अर्चना करूं ।।
जै बोलती माटी को रचा है आपने ।
जै अनेकों ग्रन्थों की टीका की है आपने ।।
ऐसे आगम प्रवीण की मैं वन्दना करूं ।
जै जै गुरू चरण की मैं अर्चना करूं ।।
जै धीर वीर आप बाल ब्रह्मचारी हो ।
जै मोह मान मत्सर से आप रहित हो ।।
ऐसे महा तपस्वी की मैं वन्दना करूं ।
जै जै गुरू चरण की मैं अर्चना करूं ।।
हे नाथ एक बार चरण धूलि बना लो ।
संसार भ्रमण चक्र से हमको भी बचालो ।।
बस यही एक आपसे मैं प्रार्थना करूं ।
जै जै गुरू चरण की मैं वन्दना करूं ।।
ओम ह्रीं श्री अमित सागर मुने पूर्णार्घ निर्व0 स्वाहा
शान्तिधारा, पुष्प ------

दोहा:

तब गुण सिन्धु अगाध है पा ना सकूं गुरु पार ।
क्षमा करो दे दो शरण गुरु चरणन के लार ।।

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